बड़ी धूमधाम से मणिभद्र वीर भगवान की 108 आरती का भव्य आयोजन
प्रगतप्रभावि श्री माणिभद्रवीर का महापूजन ओर हवन बड़ी धूमधाम से आज सम्पन्न हुआ।
सिरोही ब्यूरो न्यूज़
लालजी
श्री सिरोही जैन संघ में चातुर्मास बिराजमान योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागर सूरी समुदाय वर्ती सुबोध - मनोहर -उदयकीर्ति सागर सूरी शिष्य माणिभद्रवीर की अजोड़ साधक मुनि श्री विश्वोदयकीर्तिसागर म.सा.की पावननिश्रा में आज आसो सूद ५ गुरुवार को जैन उपाश्रय में पूजन के लाभार्थी परिवार श्रीमती सरोजबेन पोपटलाल सोनिंगरा चौहान परिवार की तरफ से पूजन का भव्यातिभव्य आयोजन हुआ। सुबह 9 से 1 बजे तक पूजन हुआ जिसमें बड़ी संख्या में भक्तों ने लाभ लिया। 36 जोड़ा युक्त पूजन में गुरुदेव ने आह्वान के साथ मे संपूर्ण विधि से मंत्रोच्चार किया।
जिस में महा आरती का लाभ लाभार्थी परिवार ने 21000 रुपिया में लिया। प्रभावना सुबह गुरुभक्तों की तरफ से हुई। ओर शाम की आरती में प्रभावना गुरुभक्तों की तरफ से प्रभावना की हुई।आज पूजन में हवन के समय चमत्कार भी हुआ। दादा मणिभद्रजी की आकृति साक्षात प्रगट हुई।
आज का सिरोही के इतिहास में ऐतिहासिक रहा।
गुरुदेव की प्रेरणा से मणिभद्र मंदिर का जीर्णोद्धार भी हो रहा है। सभी भक्त अवश्य दर्शन करने पधारे।गुरुदेव की जापसिद्ध प्रतिमा मणिभद्र दादा की अति चमत्कारी प्रतिमा है जो अवार नवार चमत्कार करती है। आज के पूजन हवन की कुछ जलक आप देखे।
श्री मणिभद्र वीर - संक्षिप्त इतिहास
मणिभद्र एक महान राजा थे जो जैन धर्म और इसके संदेशों के प्रति पूर्णतया समर्पित थे।इनके पास अपार संपत्ति थी तथा इन्हें 36 तरह के वाद्य यंत्रों का शौक था।इनकी असीम निष्ठा भक्ति से इन्हें क्षेत्रपाल घोषित कर दिया गया था।
मणिभद्र वीर, अपने पूर्व जनम में उज्जैन में जैन श्रावक माणेकशाह थे।ये एक निष्ठावान श्रावक थे जिनके गुरु महाराज हेमविमल सुरीजी थे।
आगरा में महाराज हेमविमल सूरीजी के चातुर्मास के दौरान माणेकशाह अपने गुरु से पवित्रता पर दिए गए उपदेशों व शत्रुंजय की महत्ता से बहुत प्रभावित हुए।इसी प्रभाव के कारण, इन्होंने नवणुनि यात्रा करने के लिए पैदल शत्रुंजय जाने व रयान वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास से इसे संपन्न करने की कठिन तपस्या का संकल्प लिया।
गुरु के आशीर्वाद से, कार्तिकी पूनम के शुभ दिन माणेकशाह ने अपने संकल्प का शुभारम्भ किया।जब वे वर्तमान के मागरवाड़ा के निकट थे, डाकुओं के एक दल ने इन पर व इनके साथियों पर हमला कर दिया और लड़ने लगे।अपने साथियों की जान बचाने के लिए माणेकशाह ने अपने प्राण गवा दिए, इनका सर, धड़ व शरीर का निचला हिस्सा कटकर अलग हो गए।
माणेकशाह, जो नवकार मन्त्र जाप और शत्रुंजय की पवित्रता में पूरी तरह से लीन थे, इन्द्र मणिभद्रवीर देव के रूप में पुनः जन्म लिया।पुराणों के अनुसार लड़ते हुए माणेकशाह का शरीर तीन हिस्सों में कट कर तीन अलग दिशाओं में गिर गया था।पिंडी ( शरीर का निचला हिस्सा) गुजरात के मागरवाड़ा में गिरा, धड़ अर्थात शरीर गुजरात के अग्लोड में गिरा, और मस्तक अर्थात सर मध्य प्रदेश के उज्जैन में गिरा।मूलतया भारत में मणिभद्र वीर के ये तीन स्थान ही हैं - उज्जैन, अग्लोड एवम् मागरवाडा।