बॉलीवुड फिल्म समीक्षा

Kedarnath Movie Review: केदारनाथ में बेअसर रहे सुशांत तो सारा को नहीं मिला उभरने का मौका, देखने से पहले पढ़ें

जातीय और सामाजिक भेदभाव की सीमाओं को तोड़ने वाली प्रेम कहानियों से बॉलीवुड का प्यार फिर एक बार नज़र आया अभिषेक कपूर की फ़िल्म केदारनाथ में। यहां ये खट्टी मीठी लव स्टोरी दिखाई गई है तीर्थस्थल केदारनाथ में जहां तीर्थ पर आए यात्री भगवान को ख़ुश करने के लिये कुछ भी कर जायेंगे, पर दूसरे धर्म के लोगों पर भरोसा करने को तैयार नहीं  हैं। फ‍िल्‍म में सुशांत सिंह राजपूत और सैफ अली खान की बेटी सारा अली खान लीड रोल में हैं।

 

जब क़ुदरत का क़हर बरसता है तब इन्हें इनकी कमज़ोरियां और कमियां पता आती हैं। फ़िल्म की कहानी बेहद जानी पहचानी है जो मणि रत्नम की 1995 फ़िल्म बॉम्बे की याद दिलाती है। हालांकि अभिषेक कपूर इस फ़िल्म में वो जान नहीं डाल पाते हैं।  फ़िल्म के स्पेशल इफ़ेक्ट्स के लिये बजट थोड़ा और बढ़ाया जाता तो फ़िल्म और बेहतर हो सकती थी, पर फ़िल्म के अहम सीन्स में मामूली पैचवर्क और फ़िल्म का कमज़ोर क्लाइमैक्स इससे एक बेहतर फ़िल्म बनने से रोकता है। फिर भी अभिषेक कपूर काफ़ी हद तक फ़िल्म को संभालते हैं और उनके साथ उनकी को राइटर कनिका ढिल्लोन फ़िल्म को कुछ बेहतरीन पल देती हैं। 

 

साथ मिलकर वो अंधविश्वास का दुखद सच दिखाते हैं। ऐसे देश में जहां क्रिकेट के लिये प्यार और पाकिस्तान को हराने का जूनून लोगों को साथ लाता है, हम अपनी कमज़ोरियों और असुरक्षा की भावना को नज़रंदाज़ कर देते हैं। हमारे सामने हैं एक ऐसा लड़का और लड़की जिन्हें प्यार साथ लाता है, पर धर्म अलग करता है। ये खेल तब कमजोर हो जाता है जब इनके दिल टूटते है, या जब फ़िल्म की हीरोईन का नाम मंदाकिनी उस नदी के नाम पर रखा गया जहां बाढ़ अपना क़हर बरसाती है और फ़िल्म के हीरो का नाम हीरोईन के असल दादा के नाम पर रखा गया है।  

 

फ़िल्म में बेहतरीन पल कम ही हैं। अधिकतर हिस्सों में अभिषेक कपूर आसान रास्ता अपनाते हैं। वो पूरी तरह से लव स्टोरी पर ध्यान देते हैं और फ़िल्म के बाक़ी मुद्दों को भूल ही जाते हैं। ख़ासतौर पर 2013 की बाढ़ की परिस्थितियों को मानो केवल दर्शकों को भटकाने के लिये दिखाया गया हो। 

 

फ़िल्म को ख़ास मदद मिलती है इसके कलाकारों से, तुषार कांति रे के शानदार कैमरावर्क से, ख़ूबसूरत सेट डिज़ाइन और अमित त्रिवेदी के बेहतरीन म्यूज़िक से। अभिषेक कपूर अपने पत्तों को फ़र्स्ट हाफ़ में बख़ूबी खोलते हैं, पर सेकंड हाफ़ में वो कहीं भटक जाते हैं। सारा अली खान मंदाकिनी के किरदार में अच्छी शुरुआत करती हैं। वो काफ़ी हद तक अपनी मां अमृता सिंह की याद दिलाती हैं, साथ ही उनके किरदार में करीना कपूर के गीत की भी झलक दिखाई देती है। वो कैमरे के आगे सहज लगती हैं और उनकी बेपरवाही काफ़ी ताज़ा लगती है। पर मंदाकिनी के किरदार को उभरने का मौक़ा नहीं मिलता और अक्सर वो बिना किसी वजह के बग़ावत करती है।

 

सुशांत सिंह राजपूत अच्छे हैं पर वह अपने किरदार मंसूर में चार्म नहीं ला पाते। फ़िल्म के सपोर्टिंग एक्टर्स अपने अपने किरदार को बख़ूबी निभाते हैं। निशान्त दहिया हमेशा ग़ुस्से में भरे एक पागल प्रेमी के किरदार में है, वहीं अलका अमीन लड़के की मां के किरदार में शक्की मिज़ाज और हमेशा परेशान रहने वाली औरत हैं। सोनली सचदेव आज्ञाकारी और अपनी बेटी पर नज़र रखने वाली मां के किरदार में है। वहीं पूजा ग़ौर साज़िश करने वाली प्यारी बहन के किरदार में हैं  नीतीश भारद्वाज निष्ठावान पिता के किरदार में। दो घंटे के स्क्रीन टाइम में ये फ़िल्म अंत में थका देती है और कहीं भी पूरी तरह से फ़िल्म के तौर पर एकजुट नहीं हो पाती है।

 

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